DATTA-AVTAR

21/03/2013 13:00

माता पिता का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर और गुरूओं से भी बढ़कर पूज्य है। जहांन में किसी भी देवता का स्थान दूजा है, माता पिता की सेवा ही सबसे बड़ी पूजा है। वेदों पुराणों और स्मृतियों की सुदीर्घ परम्परा में एक क्षण को ही सही जरा झॉंककर तो देखें माता पिता की सेवा के एक से एक दिव्य उदाहरण देखकर ऑंखे चौधियॉं जायेंगी। सीताराम, गौरीशंकर और राधाकृष्ण तथा अत्रिअनुसुइया, वशिष्टअरून्धती, अगस्तलोपामुद्रा के युगल सर्वज्ञात है। यहां तो श्रुतियों का शंखनाद है। ’ मातृ देवा भव पितृ देवा भव’ माता पिता की महिमा अपरमपार है, असीम है अनन्त है, अनादि है उनके स्नेह और आर्शीवाद की तुलना अन्य किसी से करना अनुचित है। जननी जनक के प्यार से बढ़कर दुनिया में कुछ नहीं होता। वहीं मात पिता की सेवा व सम्मान से बढ़कर दूसरा कोई सम्मान नहीं होता। माता पिता के श्रीचरणों की सेवा से समस्त तीर्थो का पुण्य प्राप्त होता है।

’ विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्रा व्यर्थ है यदि बेटे के होते मॉं बाप असमर्थ हैं। दुनिया के सभी मत् पन्थ यह मानते हैं कि किसी भी परिस्थिति में माता पिता को अप्रसन्न नहीं करना चाहिए। हिन्दू धर्म में बुद्धि के देवता श्री गणेश जी अपने माता पिता भगवान भोलेनाथ व मॉं पार्वती के श्रीचरणों के कारण ही प्रथम पूज्यनीय बने। वहीं मॉं अजंना व मॉं जानकी के आशीर्वाद के कारण श्री हनुमान जी महराज अजर अमर महाबलवान, ज्ञानियों में अग्रणीय बल में अतुलनीय, प्रभु के प्रिय भक्त जगत वंदनीय व पूज्यनीय हैं। भगवान श्रीराम तथा प्रभु श्रीकृष्ण ने अपने-अपने लीलाअवतार में मॉं कोशल्या व मॉं जसोमती यशोदा के प्यार व आशीर्वाद को ही सर्वोपरि बताया है। कर्म ही गिराता है कर्म ही उठाता है शुभ कर्मो के साथ-साथ माता पिता का आशीर्वाद हो तो ईश्वर की निकटता पाकर मानव धन्य हो जाता है। मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस की चौपाई में मानव को यह संदेश दिया है कि परमात्मा नित्य मॉं बॉंप, गुरू के श्रीमुख से बोलते हैं, प्रत्येक माता पिता, गुरू अपने बच्चे, शिष्य को सत्य बोलना, सत्यपथ पर चलना, सत्य ही देखना तथा सत्य ही सोचना सिखाता है। ’’

प्रातःकाल उठी रघुनाथा, माता पिता गुरू नावहि माथा ’’ अर्थात मर्यादा पुरूषोत्तम सर्वेश्वर प्रभु श्रीराम अपने त्रेतायुग की लीला में प्राणी मात्र को विशेष संदेश देने हेतु अपने दिन की शुभप्रभात की शुरूआत माता पिता व गुरू के पास जाकर उनके श्री चरणों में मस्तक नवा कर करते हैं। प्रभु का अवतार हम प्राणियों के कल्याण के लिए होता है। परमात्मा मनुष्य शरीर धारण कर हम मनुष्यों जैसा ही रहन-सहन पठन पाठक करते हैं और पाप और पुण्य का अन्तर समझाते व बताते हुये लीला करते र्हैं। इस लीला के माध्यम से उनका स्पष्ट संकेत है कि दिन उसी का निकलता है जो नित्य अपने माता-पिता,गुरू, बुजुर्गो के श्रीचरणें में मस्तक नवाते हैं बदले में उनका अकाटय आर्शीवाद, ढेरसारा प्यार प्राप्त करते है फिर आप उसके सहारे सदा उजीयाले यानि प्रकाश में ही जीवन जीते हैं। आपको पता नही चल पाता और आप (माता पिता) का आर्शीवाद लेकर दिन का आरम्भ करने वाले पहाड़ को राई करते चले जाते हैं आपका जीवन औरों के लिये प्रेरणादायी बन जाता है।

सम्पूर्ण ब्रहृम्ड में जलचर, थलचर नभचर नाना में कोई ऐसा जीव नहीं मिलेगा जो ये नहीं चाहता कि प्रभु प्रसन्न रहे परन्तु वह यह भी जानना चाहता है कि परमात्मा हमसे प्रसन्न है कि नहीं। इस रहस्यमयी जानकारी का पता कैसे चले,यह भी सभी जानने को उत्सुक रहते हैं। प्रायः सुख,दुख लाभ हानि जीवन मरण के माध्यम से ही मालिक के अनुकूल और प्रतिकूल होने का अंदाज लगाते हैं। भारत वर्ष के महान ऋषियों ने इस रहस्य को भी प्राणीमात्र को बताया कि अपने माता पिता का श्रीमुख देखो यदि वे प्रसन्नचित हैं तो जाने प्रभु प्रसन्न हैं बस यही मालिक के प्रसन्न होने या अप्रसन्न होने के जानने की विधि है।
भारतीय संस्कृति में माता पिता का स्थान सर्वोपरि माना गया है- मॉ बाप ऐसे भावपूर्ण शब्द है जो श्रवण मात्र से तन मन में ऊर्जा का संचार कर देते हैं। माता पिता बंदनीय है पूज्यनीय है। महान ऋषि पराशर पुत्र महर्षि व्यास ने महर्षि जाबालि को इस गूढ सूत्र का ज्ञान देते हुये कहा कि माता पिता से बढ़कर इस त्रिभुवन में अन्य कोई पूज्यनीय नहीं है स्त्रोत का प्रथम श्लोक ही माता की महिमा का गान प्रस्तुत करता है-
’’पितुरप्यधिका माता गर्भधारणपोषणातं ।
अतो हि त्रिषु लोकेषु नास्ति मृतसमोगुरूः।।’’
अर्थात पुत्र के लिए माता का स्थान पिता से भी बढ़कर है क्योंकि वह उसे गर्भ में धारण कर उसका पालन पोषण करती है। अतः तीनों लोकों में माता के समान दूसरा गुरू नहीं है। व्यास मुनि स्पष्ट कहते हे। कि धर्मज्ञ पुत्र माता पिता को एक साथ देंखे, तो पहले माता को प्रणाम करें फिर पिता रूपी गुरू को प्रणाम करें।
मातरं पितरं चोभौ दृष्ट्वा पुत्रस्तु धर्मवित्।
प्रणम्य मातरं पश्चात प्रणमेत् पितरं गुरूम्।।
मॉं के 21 नाम शास्त्रों में बतलाये गये हैं जिसकी पुष्टि करता हुआ यह स्त्रोत माता, दया, शान्ती, क्षमा, धृति, स्वाहा, स्वधा, गौरी, पदमा, विजया, जया तथा दुःखहन्त्री नाम से माता की स्तुति करता है। व्यास जी कहते है। कि जिस प्रकार मॉं भगवती के दर्शन से उत्पन्न आनन्द को वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता उसी प्रकार माता पिता का दर्शनमात्र बालक की पीड़ा का शमन कर देता है। ब्रहमावैवृत पुराण में सोलह स्त्रियों को माता की संज्ञा दी गयी है -
स्तनदात्री, गर्भधात्री भक्ष्यदात्री गुरूप्रिया।
अभीष्ठदेवपत्नी च पूतःपत्नी च कन्यका।।
सगर्भजा या भगिनी पुत्र पत्नी प्रियापसूः।
मातुर्माता पितुमार्ता सोदरस्य प्रिया तथा।।
मातुः पितुश्च भगिनी मातुलानी तथैव च।
जनानां देवविहिता मातरः षोडश स्मृताः ।।
अर्थात गर्भधारण करने वाली स्तनपान कराने वाली भोजन कराने वाली, गुरूपत्नि, विमाता, ईष्टदेवता की पत्नी, सौतेली बहन, सहोदर बहन, पुत्रबधु, सास, दादी, परनारी, भाई की स्त्री, मौसी, बुआ और नानी। माता के ये सभी रूप पूज्यनीय हैं। माता पिता को सर्वेश्रेष्ठ गुरू मानकर सच्चे हृदय से उनकी सेवा करने वाला ही संतान कहलाने योग्य है।